some thoughts as I looked into her eyes ….
माँ मुझे गुडिया ले दो …
खड़ी है वो चुप चाप … लालायित आँखों से देखती …
सुबह की हलकी धूप सूखे बालों को सुनहरा करती …
देखती है गुम-सुम सी हँसते बच्चों को स्कूल जाते …
अटकती हैं उसकी नज़रें उनके चमकते जूतों पर …
वापस आती हैं अपने नंगे कटे से पांवों पर …
उस के होठ हिलते हैं जैसे कह रहे हों मन ही मन …
कोई सुनी हुई कविता कोई भूला दो का पहाड़ा …
खड़ी है वो चुप चाप
कार में बैठी कुछ कुछ अपने ही जैसी लड़की को …
आइस-क्रीम खाती वो लड़की चहक रही है …
देखती है उसको ..उसके बालों में लगे रिबन को …
हाथ उठ जाते हैं खुद के उलझे हुए बालों तक …
जीभ फेरती है अपने सूखे हुए होठों पर …
देखती है खुद को वहां एक पल को …
खड़ी है वो चुप चाप … लालायित आँखों से देखती …
खुद तो संभली नहीं और दूसरे दे दिए गोद में …
बहन और माँ के अंतर को खत्म कर दिया गरीबी ने …
गुड्डे-गुडिया के खेल खेले नहीं …संभाला अपनों को …
घर घर खेलने की उम्र में सेकी असली रोटियाँ …
किस से मांगे वो गुडिया …किस से कहे स्कूल भेज दो …
कौन है अपना …गरीबी में ?
माँ …मुझे गुडिया ले दो …
© Dr. Anita Hada Sangwan